Etihasik Bhashavigyan Aur Hindi Bhasha

Front Cover
Rajkamal Prakashan, Jan 1, 2001 - Hindi language - 310 pages
रामविलासजी ने भाषा की ऐतिहासिक विकास प्रक्रिया को समझने के लिए प्रचलित मान्यताओं को अस्वीकार किया और अपनी एक अलग पद्धति विकसित की। वे मानते थे कि कोई भी भाषापरिवार एकान्त में विकसित नहीं होता, इसलिए उसका अध्ययन अन्य भाषापरिवारों के उद्भव और विकास से अलग नहीं होना चाहिए। वे चाहते थे कि प्राचीन लिखित भाषाओं की सामग्री का उपयोग करते समय जहाँ भी समकालीन उपभाषाओं, बोलियों आदि की सामग्री प्राप्त हो, उस पर भी ध्यान दिया जाए, इसी तरह आधुनिक भाषाओं पर काम करते हुए उनकी बोलियों के भाषा-तत्त्वों को भी सतत ध्यान में रखा जाए। भाषा की विकास-प्रक्रिया के विषय में उनकी मान्यता थी कि भाषा निरन्तर परिवर्तनशील और विकासमान है। विरोध और भिन्नता के बिना भाषा न गतिशील हो सकती है, न वह आगे बढ़ सकती है। इसलिए किसी भी भाषा के किसी भी स्तर पर, विरोधी प्रवृत्तियों और विरोधी तत्त्वों के सहअस्तित्व की सम्भावना के लिए हमें तैयार रहना चाहिए। इन तथा कुछ और बातों, जो रामविलासजी की भाषावैज्ञानिक समझ का अनिवार्य अंग थीं, को ध्यान में रखते हुए ऐतिहासिक भाषाविज्ञान के क्षेत्र में अनुसंधान नहीं किया गया, अगर ऐसा किया जाता तो निश्चय ही कुछ नए निष्कर्ष हासिल होते। रामविलासजी ने विरोध का जोखिम उठाकर भी यह किया, जिसके प्रमाण इस पुस्तक में भी मिल सकते हैं।

Other editions - View all

About the author (2001)

डॉ रामविलास शर्मा 10 अक्तूबर सन् 1912 को ग्राम ऊँचगाँव सानी, जिला-उन्नाव (उत्तर प्रदेश) में जन्मे रामविलास शर्मा ने 1932 में बी.ए., 1934 में एम.ए. (अंग्रेजी), 1938 में पी. एच. डी. (लखनऊ विश्वविद्यालय) की उपाधि प्राप्त की ! लखनऊ विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में पाँच वर्ष तक अध्यापन-कार्य किया ! सन 1943 से 1971 तक आगरा के बलवंत राजपूत कॉलेज में अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष रहे ! बाद में आगरा विश्वविद्यालय के कुलपति के अनुरोध पर के.एम. हिन्दी विद्यापीठ के निदेशक का कार्यभार स्वीकार किया और 1974 में अवकाश लिया। सन 1949 से 1953 तक रामविलासजी अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के महामंत्री रहे ! देशभक्ति तथा मार्क्सवादी चेतना रामविलास जी की आलोचना की केन्द्र-बिन्दु है। उनकी लेखनी से वाल्मीकि तथा कालिदास से लेकर मुक्तिबोध तक की रचनाओं का मूल्यांकन प्रगतिवादी चेतना के आधार हुआ। उन्हें न केवल प्रगति-विरोधी हिन्दी-आलोचना की कला एवं साहित्य-विषयक भ्रान्तियों के निवारण का श्रेय है, वरन् स्वयं प्रगतिवादी आलोचना द्वारा उत्पन्न अन्तर्विरोधों के उन्मूलन का गौरव भी प्राप्त है। साहित्य अकादेमी का पुरस्कार तथा हिन्दी अकादेमी, दिल्ली का शताब्दी सम्मान से सम्मानित। देहावसान: 30 मई, 2000।

Bibliographic information