Kamayani

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Rajkamal Prakashan, Jan 1, 2008 - Epic poetry, Hindi - 159 pages
कामायनी अपने प्रकाशन से लेकर आज तक की अवधि में सर्वाधिक चरित्र और विवादस्पद पुस्तक रही है ! लेकिन साड़ी अतिरेकी प्रशंसाओं तथा आलोचनाओं को आत्मसात करके वह न केवल अपने स्थान पर निश्छल है बल्कि सुधी आलोचकों की दृष्टि में उत्तरोत्तर प्रासंगिक होती जा रही है ! कामायनी की कथा मूलतः एक फैंटेसी है, जिसका उपयोग प्रसादजी ने अपने समय की सामाजिक राष्ट्रवादी वास्तविकता के विश्लेषण में किया है ! यही कारण है कि इसके पात्र-मनु, श्रद्धा और इडा-मात्र प्रतीक हैं, लेकिन इनके माध्यम से जो विश्लेषण कामायनी में प्रस्तुत हुआ है वह आज भी उतना ही सच है जितना प्रसादजी के ज़माने में था ! मुक्तिबोध के शब्दों में, "कामायनी में वर्णित सभ्यता-प्रयासों के पीछे, प्रसादजी का अपना जीवनानुभव, अपने युग की वास्तविक परिस्थिति, अपने समय की सामाजिक दशा बोल रही है !" संक्षेप में, कामायनी एक ऐसा महाकाव्य है, जो आज के मानव-जीवन को उसके समस्त परिवेश और परिस्थिति के साथ प्रस्तुत करता है !
 

Contents

Section 1
4
Section 2
11
Section 3
19
Section 4
28
Section 5
35
Section 6
53
Section 7
79
Section 8
90
Section 9
100
Section 10
112
Section 11
126
Section 12
144

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Common terms and phrases

अधीर अनंत अपना अपनी अपने अब अरे आज आलोक आह इड़ा इस उधर उस उसी ऋग्वेद एक और कब कभी कर करता करती करते करने कहाँ का कि किंतु कितना कितनी किन्तु की कुछ के केवल कैसे को कोई कोमल कौन क्या क्यों गया घन चल चला चले चिर चेतना छाया जब जल जाता जाती जिसमें जीवन का जैसे जो ज्यों ज्वाला तक तब तुम तू तो था थी थे दुख दूर दे देख देव दो नभ नव नहीं निज नील ने पथ पर पवन प्रकृति प्राण फिर बन बना बस भर भरा भरी भाव भी मधु मधुर मन मनु माया मुख में मेरा मेरी मैं यह यहाँ यही या ये रहा रही रहे लगा लहरों लिये ले वह वही विकल विश्व वे शीतल श्रद्धा संसृति सत्य सदा सब सा सी सुख सुन्दर सृष्टि से हम हाँ ही हुआ हुई हुए हूँ हृदय है हैं हो होता होती

About the author (2008)

जन्म : 30 जनवरी 1890, वाराणसी (उ.प्र.)। स्कूली शिक्षा मात्र आठवीं कक्षा तक। तत्पश्चात् घर पर ही संस्कृत, अंग्रेजी, पालि और प्राकृत भाषाओं का अध्ययन। इसके बाद भारतीय इतिहास, संस्कृति, दर्शन, साहित्य और पुराण-कथाओं का एकनिष्ठ स्वाध्याय। पिता देवीप्रसाद तम्बाकू और सुँघनी का व्यवसाय करते थे और वाराणसी में इनका परिवार 'सुँघनी साहू’ के नाम से प्रसिद्ध था। पिता के साथ बचपन में ही अनेक ऐतिहासिक और धार्मिक स्थलों की यात्राएँ कीं। छायावादी कविता के चार प्रमुख उन्नायकों में से एक। एक महान लेखक के रूप में प्रख्यात। विविध रचनाओं के माध्यम से मानवीय करुणा और भारतीय मनीषा के अनेकानेक गौरवपूर्ण पक्षों का उद्घाटन। 48 वर्षों के छोटे-से जीवन में कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास और आलोचनात्मक निबन्ध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाएँ। प्रमुख रचनाएँ : झरना, आँसू, लहर, कामायनी (काव्य); स्कन्दगुप्त, अजातशत्रु, चन्द्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, जनमेजय का नागयज्ञ, राज्यश्री (नाटक); छाया, प्रतिध्वनि, आकाशदीप, आँधी, इन्द्रजाल (कहानी-संग्रह); कंकाल, तितली, इरावती (उपन्यास)। 14 जनवरी, 1937 को वाराणसी में निधन।

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