Kamayaniकामायनी अपने प्रकाशन से लेकर आज तक की अवधि में सर्वाधिक चरित्र और विवादस्पद पुस्तक रही है ! लेकिन साड़ी अतिरेकी प्रशंसाओं तथा आलोचनाओं को आत्मसात करके वह न केवल अपने स्थान पर निश्छल है बल्कि सुधी आलोचकों की दृष्टि में उत्तरोत्तर प्रासंगिक होती जा रही है ! कामायनी की कथा मूलतः एक फैंटेसी है, जिसका उपयोग प्रसादजी ने अपने समय की सामाजिक राष्ट्रवादी वास्तविकता के विश्लेषण में किया है ! यही कारण है कि इसके पात्र-मनु, श्रद्धा और इडा-मात्र प्रतीक हैं, लेकिन इनके माध्यम से जो विश्लेषण कामायनी में प्रस्तुत हुआ है वह आज भी उतना ही सच है जितना प्रसादजी के ज़माने में था ! मुक्तिबोध के शब्दों में, "कामायनी में वर्णित सभ्यता-प्रयासों के पीछे, प्रसादजी का अपना जीवनानुभव, अपने युग की वास्तविक परिस्थिति, अपने समय की सामाजिक दशा बोल रही है !" संक्षेप में, कामायनी एक ऐसा महाकाव्य है, जो आज के मानव-जीवन को उसके समस्त परिवेश और परिस्थिति के साथ प्रस्तुत करता है ! |
Contents
Section 1 | 4 |
Section 2 | 11 |
Section 3 | 19 |
Section 4 | 28 |
Section 5 | 35 |
Section 6 | 53 |
Section 7 | 79 |
Section 8 | 90 |
Section 9 | 100 |
Section 10 | 112 |
Section 11 | 126 |
Section 12 | 144 |
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Common terms and phrases
अधीर अनंत अपना अपनी अपने अब अरे आज आलोक आह इड़ा इस उधर उस उसी ऋग्वेद एक और कब कभी कर करता करती करते करने कहाँ का कि किंतु कितना कितनी किन्तु की कुछ के केवल कैसे को कोई कोमल कौन क्या क्यों गया घन चल चला चले चिर चेतना छाया जब जल जाता जाती जिसमें जीवन का जैसे जो ज्यों ज्वाला तक तब तुम तू तो था थी थे दुख दूर दे देख देव दो नभ नव नहीं निज नील ने पथ पर पवन प्रकृति प्राण फिर बन बना बस भर भरा भरी भाव भी मधु मधुर मन मनु माया मुख में मेरा मेरी मैं यह यहाँ यही या ये रहा रही रहे लगा लहरों लिये ले वह वही विकल विश्व वे शीतल श्रद्धा संसृति सत्य सदा सब सा सी सुख सुन्दर सृष्टि से हम हाँ ही हुआ हुई हुए हूँ हृदय है हैं हो होता होती