हा जीवन! हा मृत्यु!

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Onlinegatha, Jan 30, 2015 - 190 pages

दिव्या माथुर की रचनाधर्मिता की क्षमता को आत्मीयता से मैंने तब जाना जब मैं लंदन स्थित नेहरु सेंटर में प्रवास कर रहा था और वह मेरे साथ कार्यरत थीं। वहाँ मैंने अनेक प्रवासियों के अंदर अपनी संस्कृति को जीने की ललक तथा उसे बटोरने की उत्कट आकांक्षा देखी। कवयित्री दिव्या भी अपनी संस्कृति को सहेजने में अनवरत रूप से जुटी हैं और इस क्रम में लोगों को लोगों से भारत को भारतीयता से और सभी को संस्कृति से अलग अलग उपक्रमों द्वारा जोड़ रहीं हैं। इस शैली में वह अधिकारी से अधिक समर्पित संस्कृतिकर्मी नज़र आती हैं। उनका सृजन संस्कृति को सहेजने का एक खूबसूरत माध्यम है और उनके सातों कविता-संग्रह, पांचो कहानी संग्रह और हाल ही में रचित पहला उपन्यास, उसी का सार्थक प्रतिफल है।
जीवन और मृत्यु पर आधारित रचनाओं के इस संग्रह में कोई ऐसा रंग नहीं है जिसे दिव्या पकड़ने में सफल न रही हो।

फिर उसी बेवफ़ा पे मरते हैं, फिर वही ज़िंदगी हमारी है|
बेखुदी बेसबब नहीं ग़ालिब कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है||

पवन कुमार वर्मा
बिहार के मुख्यमंत्री के सांस्कृतिक सलाहकार
पूर्व निदेशक, नेहरु केंद्र, लन्दन 
पूर्व महानिदेशक भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद, दिल्ली 

 

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अपना अपनी अपने अब अौर आई आज इक इस उजीवन उनकी उन्हें उपन्यास उसकी उसके उसे ऊनी एक ऐसी और कभी कर करते कविता कहीं का कि कि वह किन्तु किया किसी की तरह कुछ के लिए के साथ केवल को कोई क्या क्यूं क्यों खामोशी गया घर छी/श्र जाता है जी जीवन जो डर डा तक तुम तो था थी थे दर्द दलाई लामा दिया दिव्या दे देते हैं दो न ही नई नहीं ने पर पहले पुरवाई पूछा प्यार प्यासा प्रेमचंद फिर बच्चों बस बहुत बार बेटा भर भी मन में माँ मुझे मृत्यु में मेंने मेरा मेरी मेरे मैं मौत यदि यह या यू ये रहा है रही रहे हैं राम ले लो वह वहाँ वही वे वो शायद संग सदा सब सही सा सी सुबह से स्वयं हम हर हाथ हुआ हुए हूँ है है और हो होगी होता G&zzzzfizz.Con1 Z2.ownoad/rce 67OOKe cr

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