हा जीवन! हा मृत्यु!Onlinegatha, Jan 30, 2015 - 190 pages दिव्या माथुर की रचनाधर्मिता की क्षमता को आत्मीयता से मैंने तब जाना जब मैं लंदन स्थित नेहरु सेंटर में प्रवास कर रहा था और वह मेरे साथ कार्यरत थीं। वहाँ मैंने अनेक प्रवासियों के अंदर अपनी संस्कृति को जीने की ललक तथा उसे बटोरने की उत्कट आकांक्षा देखी। कवयित्री दिव्या भी अपनी संस्कृति को सहेजने में अनवरत रूप से जुटी हैं और इस क्रम में लोगों को लोगों से भारत को भारतीयता से और सभी को संस्कृति से अलग अलग उपक्रमों द्वारा जोड़ रहीं हैं। इस शैली में वह अधिकारी से अधिक समर्पित संस्कृतिकर्मी नज़र आती हैं। उनका सृजन संस्कृति को सहेजने का एक खूबसूरत माध्यम है और उनके सातों कविता-संग्रह, पांचो कहानी संग्रह और हाल ही में रचित पहला उपन्यास, उसी का सार्थक प्रतिफल है। |