Purovak: PUROVAK: Pioneering the Path of Excellence by VINOD BALA ARUN

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Prabhat Prakashan, Jan 1, 2009 - Fiction - 192 pages
यत्र-तत्र मेरे लेखन में लोक संस्कृति के सूत्रों को पढ़कर ही ‘पाञ्चजन्य’ साप्ताहिक पत्रिका के संपादक ने अपनी पत्रिका में मुझे एक विषेश स्तंभ लिखने के लिए कहा था। मैंने उनका भाव समझकर स्तंभ का परिचय लिख दिया था। नाम दिया था—‘सरोकार’। उन्हें वह पसंद आ गया। उन्होंने कहा; आपने मेरे मन के भाव पढ़ लिये। अब लिखना प्रारंभ करिए। लोकजीवन में व्याप्त आँगन; चाँद मामा; दादा-दादी; पाहुन; पगड़ी; झुंगा; गोबर; गाय; गाँव की बेटी; छतरी से लेकर झाड़ू तक लिख डाले। तीन वर्षों में सैकड़ों विषयों के मानवीय सरोकार। पाञ्चजन्य की पहुँच देश के कोने-कोने से लेकर विदेशों में भी है। सभी स्थानों से पाठकों के प्रशंसा नहीं; प्रसन्नता के स्वर मुझे भी सुनाई देने लगे। मैं समझ गई; हमारी लोकसंस्कृति जो संपूर्ण भारतीय संस्कृति की आधार है; लोक के हृदय में जीवित है। जिन लोकों का संबंध ग्रामीण जीवन से अब नहीं है; उन्होंने भी बचपन में देखे-सुने रस्म-रिवाज और जीवन व्यवहार की स्मृतियाँ हृदय में संजोए रखी हैं। पाठकों की सराहना ने मुझे उन सरोकारों को चिह्नित करने का उत्साह दिया। मैं लिखती गई। काकी के आम वृक्ष पर कौआ; ईआ के आँगन के कोने का झाड़ू; उसी आँगन के बड़े कोने में रखी लाठियाँ; आम का बड़ा वृक्ष और बड़ा चाँद; सबकुछ जीवंत हो जाता था और उन सबके साथ काकी; भैया; चाचा-चाची; बाबूजी-ईआ के संग नौकर-नौकरानियों की स्मृतियाँ भी। फिर तो आँखें भरनी स्वाभाविक थीं। कभी-कभी उनकी स्मृतियों की जीवंत उपस्थिति के कारण आँखों के सामने से धुँधलका छँटे ही नहीं। छाँटने की जरूरत भी क्या थी। संपूर्ण लोकसंस्कृति उन्हीं के कारण तो विस्मृत नहीं हुई है। उम्र बढ़ने के साथ ‘आत्मवत् सर्वभूतेषू’ पढ़ा-समझा। अपने अंदर झाँककर देखा तो समझ आई कि अपने चारों ओर के पशु-पक्षी; पेड़-पौधों; नदी-पहाड़ को अपने परिवार के अंग समझने की दृष्टि तो काकी; ईआ क्या गाँव के गरीब गुड़वा के व्यवहारों ने भी दी थी। इस मंत्र को स्मरण करने की भी क्या जरूरत; जो हमारी नस-नस में व्याप्त है। लोकसंस्कृति के माध्यम से भारतीय संस्कृति को समझना सरल हो जाता है। संस्कृति भाव है और व्यवहार भी। भारतीय संस्कृति के भाव का व्यवहार ही रहा है लोकाचार। मैं उन पाठकों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ; जिन्होंने कलम को चलते रहने की शक्ति दी। हमारी वर्तमान और आनेवाली पीढ़ी इन सरोकारों को पढ़े तो मेरी लेखनी धन्य-धन्य होगी। लेखन का उद्देश्य उन बुझते हुए दीपक की लौ को सँजोना ही है। पेड़-पौधे; धान; आग और पानी भी तो हम अगली पीढ़ी के लिए सँजोकर रखते हैं; फिर लोक संस्कार क्यों नहीं? हमारी संस्कृति भी तो रिलेरेस के समान है। मेरे पौत्र-पौत्रियाँ अपनी पौत्र-पौत्रियों को प्रकृति के साथ मानवीय सरोकारों को स्मरण कराती रहेंगी; तभी तो संस्कृति प्रवाहमय रहेगी। यही उद्देश्य रहा है इस पुस्तक लेखन का।
 

Contents

Section 1
Section 2
Section 3
Section 4
Section 5
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Section 8
Section 9
Section 10
Section 11
Section 12
Section 13
Section 14
Section 15

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