Meera

Front Cover
Radhakrishna Prakashan, Jan 1, 2004 - 178 pages
हमारे दौर के असाधारण फिल्मकार और शायर गुलज़ार की फिल्म ‘मीरा’ की यह स्क्रिप्ट मीरा की जीवन-कथा का बयान भर नहीं है। यह मीरा को देखने के लिए एक अलग नजरिये का आविष्कार भी करती है। जैसा कि स्वाभाविक ही था, माध्यम की जरूरतों के चलते, इस पाठ में मीरा हमें कहीं ज्यादा मानवीय और अपने आसपास की देहधारी इकाई के रूप में दिखाई देती हैं; लगभग दैवी व्यक्तित्व नहीं जैसा कि इतिहास के नायकों के साथ अकसर होता है, और मीरा के साथ भी हुआ। लेकिन मीरा के मानवीकरण में माध्यम की आवश्यकताओं के अलावा काफी भूमिका खुद गुलज़ार साहब की और एक रचनाकार के रूप में उनके रुझान की भी है। अपने गीतों में वे हवा, धूप और आहटों तक का मानवीकरण करते रहे हैं; फिर मीरा तो जीते-जागते इंसानों से भी कुछ ज्यादा जीवित मानवी थीं। मीरा और उनके युग का पुनराविष्कार करनेवाली फिल्म की स्क्रिप्ट के अलावा इस पुस्तक में गुलज़ार से उनके रचनाकर्म के बारे में यशवंत व्यास की एक लम्बी बातचीत भी है और साथ है ‘मीरा’ के निर्माण में आनेवाली मुश्किलों के बारे में गुलज़ार का एक संस्मरण, जो इस पुस्तक को और उपयोगी तथा संग्रहणीय बनाता है। सिनेमा के विद्यार्थियों और पटकथा लेखकों को भी यह पुस्तक बहुत कुछ सिखाती है।
 

Selected pages

Other editions - View all

Common terms and phrases

अकबर अगर अपनी अपने अब आई आप आपको आया इस उनके उन्हें उस उसकी उसके उसमें उसे ऊदा एक ओर और कर करता करते करना करने कहा का काम किया किसी की की तरह कुँवरबाई कुछ कृष्णा के लिए के साथ को कोई क्या क्यों खुद गई गए गया गुलज़ार घर जब जयमल जा जाता है जाने जैसे जो डायरेक्टर तक तुम तुलसीदास तो था थी थे दिन दिया दी देखा दो दोनों नहीं नहीं है पर पहले पूछा फिर फ़िल्म फ़िल्मों बहुत बात बाद बाहर बीरमदेव बेटी भी भोज भोजराज मन्दिर महन्त मीरा ने मुझे में मेरे मैं मैंने यशवन्त यह या ये रहा था रही थी रहे थे रैदास ललिता लिया ले लेकिन लेखक लोग वह वहाँ वही विक्रमजित वो श्रीकृष्ण सब सामने सिर्फ़ सीन सुनकर से स्क्रिप्ट हम हर हाथ ही हुआ हुई हुए हूँ है और है कि हैं हो होगा होता है होती

About the author (2004)

गुलज़ार एक मशहूर शायर हैं जो फिल्में बनाते हैं। गुलज़ार एक अप्रतिम फिल्मकार हैं जो कविताएँ लिखते हैं। बिमल राय के सहायक निर्देशक के रूप में शुरू हुए। फिल्मों की दुनिया में उनकी कविताई इस तरह चली कि हर कोई गुनगुना उठा। एक 'गुलज़ार-टाइप' बन गया। अनूठे संवाद, अविस्मरणीय पटकथाएँ, आसपास की जि़न्दगी के लम्हे उठाती मुग्धकारी फिल्में। परिचय, आँधी, मौसम, किनारा, खुशबू, नमकीन, अंगूर, इजाज़त—हर एक अपने में अलग। 1934 में दीना (अब पाकिस्तान) में जन्मे गुलज़ार ने रिश्ते और राजनीति—दोनों की बराबर परख की। उन्होंने माचिस और हू-तू-तू बनाई, सत्या के लिए लिखा—'गोली मार भेजे में, भेजा शोर करता है... कई किताबें लिखीं। चौरस रात और रावी पार में कहानियाँ हैं तो गीली मिटटी एक उपन्यास। 'कुछ नज़्में, साइलेंसेस, पुखराज, चाँद पुखराज का, ऑटम मून, त्रिवेणी वगैरह में कविताएँ हैं। बच्चों के मामले में बेहद गम्भीर। बहुलोकप्रिय गीतों के अलावा ढेरों प्यारी-प्यारी किताबें लिखीं जिनमें कई खंडों वाली बोसकी का पंचतंत्र भी है। मेरा कुछ सामान फिल्मी गीतों का पहला संग्रह था, छैयाँ-छैयाँ दूसरा। और किताबें हैं : मीरा, खुशबू, आँधी और अन्य कई फिल्मों की पटकथाएँ। 'सनसेट प्वॉइंट', 'विसाल', 'वादा', 'बूढ़े पहाड़ों पर' या 'मरासिम' जैसे अल्बम हैं तो 'फिज़ा' और 'फिलहाल' भी। यह विकास-यात्रा का नया चरण है। बाकी कामों के साथ-साथ 'मिर्जा' गालिब' जैसा प्रामाणिक टी.वी. सीरियल बनाया, कई अलंकरण पाए। सफर इसी तरह जारी है। फिल्में भी हैं और 'पाजी नज़्मों' का मजमुआ भी आकार ले रहा है। चिट्ठी का पता वही है—बोस्कियाना, पाली हिल, बांद्रा, मुम्बई।

Bibliographic information