Bhakti SiddhantLokbharti Prakashan, Sep 1, 2007 - 356 pages महान आलोचकों, समीक्षकों, मर्मज्ञों द्वारा भक्ति साहित्य पर बहुत लिखा गया, लेकिन वस्तुपरक दृष्टि से भक्ति साहित्य के सागर को मथ कर भक्ति तत्त्व या सिद्धान्त-रूपी रत्नांे को पाठकों के जगत तक पहँुचाने के कार्य की ओर लोगों का ध्यान कम गया है। इस ग्रन्थ के प्रथम अध्याय में भक्ति की शाब्दिक व्युत्पत्ति, परिभाषा, व्याख्या, भेद एवं भक्ति के स्वरूप और प्रकृति से सम्बन्धित उपलब्ध सामग्री को विवेचनात्मक दृष्टि के साथ प्रस्तुत किया गया है। दूसरे अध्याय में भक्ति के विकास को अंकित करने की चेष्टा की गई है और वेद, उपनिषद्, सूत्र साहित्य आदि से लेकर मध्ययुगीन आचार्यों के ग्रन्थों में भक्ति से सम्बन्धित सामग्री को एकत्रित करने का प्रयास किया गया है। तीसरे अध्याय में उपास्य के स्वरूप पर विचार किया गया है। मध्ययुगीन भक्ति साहित्य में उपास्थ के विविध रूपों का वर्णन उपलब्ध होता है। उपासक अपने भावानुसार उपास्य का अपना अलग रूप बड़े आत्मविश्वास के साथ अंकित करता है। भक्ति साहित्य की चारों शाखाओं में उपास्य के नाम, गुण, रूप, लीला आदि से सम्बन्धित सामग्री का विवेचन इस अध्याय में किया गया है। चौथे अध्याय में उपासक के स्वरूप पर विचार किया गया है। उपासक भगवान के साथ किस प्रकार अपना भाव-सम्बन्ध स्थापित करता है, भक्ति प्राप्त होने पर उसके हाव-भाव, मनःस्थिति क्या होती है, ये विषय भी इस अध्याय में समाविष्ट हैं। पाँचवाँ अध्याय भक्ति से सम्बन्धित है। भक्ति की प्राप्ति कैसे सम्भव है, भक्ति करना कठिन है या सरल, ज्ञान और कर्म के सन्दर्भ में भक्ति की क्या स्थिति है, आदि विषयों को इस अध्याय में रखा गया है। छठे अध्याय में भक्ति के सहायक तत्त्वों पर और सातवें अध्याय में भक्ति के बाधक तत्त्वों पर विचार किया गया है। आठवें अध्याय में भक्ति से सम्बन्धित लक्ष्य और अंत में भक्ति साहित्य के योगदान पर विचार किया गया है। इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ की यह विशेषता है कि जहाँ इसमें एक ओर हिन्दीतर संस्कृत साहित्य में उपलब्ध भक्ति सिद्धान्तों का विवेचन किया गया है वहीं भक्ति काल की समस्त साहित्यिक धाराओं के वस्तुपरक अध्ययन के आधार पर बौद्धिक दृष्टिकोण और भावात्मक गहराई से भक्ति सिद्धान्त अथवा भक्ति तत्त्व निकालने का भी प्रयास किया गया है। |
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Common terms and phrases
१० ११ १२ अनेक अन्य अपने आदि इस प्रकार ईश्वर उनके उस उसके उसे एक ऐसा और कथन कबीर कर करता है करते हैं करना करने कहते कहा गया है का काव्य किन्तु किया है किसी की कुछ कृष्ण के लिए के साथ केवल को कोई गीता गुरु जब जा जाता है जाती जो ज्ञान तक तब तुलसी तुलसीदास तो था थे दिया दृष्टि धर्म नहि नहीं नहीं है नाम नारद ने पद पर पृ० प्रभु प्रीति प्रेम बहुत बात बिना बिनु ब्रह्म ब्रह्मसूत्र भक्त भक्ति के भक्ति सिद्धान्त भगति भा० भाव भी मन मनुष्य माना माया मार्ग में में भी मैं यह या योग राम रामचरितमानस रूप में वर्णन वह वही वाले विष्णु वे वेद वैष्णव सकता है सब समस्त साहित्य सुख सू० सूर सूरदास से सो स्वरूप हरि ही हृदय है कि हो होइ होता है होती