Bharat Ke Gaon

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Rajkamal Prakashan, Jan 1, 2000 - India - 178 pages
भारत, ब्रिटेन और अमेरिका के प्रमुख समाजशास्त्रियों द्वारा लिखे गए निबन्धों के इस संग्रह में भारत के चुनिन्दा गाँवों और उनमें हो रहे सामाजिक–सांस्कृतिक परिवर्तनों के विवरण प्रस्तुत हैं । हर निबन्ध एक क्षेत्र के एक ही गाँव या गाँवों के समूह के गहन अध्ययन का परिणाम है । यह निबन्ध एक विस्तृत क्षेत्र का लेखा–जोखा प्रस्तुत करते हैं, उत्तर में हिमाचल प्रदेश से लेकर दक्षिण में तंजौर तक और पश्चिम में राजस्थान से लेकर पूर्व में बंगाल तक । सर्वेक्षित गाँव सामुदायिक जीवन के विविधµप्रारूप प्रस्तुत करते हैं, लेकिन इस विविधता में ही कहीं उस एकता का सूत्र गुँथा है जो भारतीय ग्रामीण दृश्य का लक्षण है । गहरी धँसी जाति व्यवस्था और गाँव की एकता का प्रश्न हाल के वर्षों में बढ़े औद्योगीकरण और शहरीकरण के ग्रामीण विकास के लिए सरकारी योजनाओं और शिक्षा के प्रभाव कुछ ऐसे पक्ष हैं जिसकी विद्वत्तापूर्ण पड़ताल हुई है । आज भी, भारत एक कृषि प्रधान देश है जिसकी 80 प्रतिशत जनसंख्या उसके पाँच लाख गाँवों में रहती है, और उन्हें बदल पाने के लिए उनके जीवन की स्थितियों की जानकारी जरूरी है । भारत के गाँव जिज्ञासुµसामान्य जन और ग्रामीण भारत को जाननेवाले विशेषज्ञों के लिए ग्रामीण भारत का परिचय उपलब्ध करवाती है ।
 

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Contents

Section 1
5
Section 2
7
Section 3
9
Section 4
20
Section 5
25
Section 6
37
Section 7
42
Section 8
53
Section 11
79
Section 12
89
Section 13
92
Section 14
105
Section 15
112
Section 16
125
Section 17
136
Section 18
152

Section 9
62
Section 10
69
Section 19
169

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Common terms and phrases

अक्सर अछूत अपनी अपने अब अलग आज आदिवासी आनुष्ठानिक आर्थिक इन इस उनकी उनके उन्हें उसकी उसके उसे एक ही एकता ऐसा ऐसे कई कम कर करता करती करते हैं करने का का एक काम किया किसी की कुछ के बीच के लिए केरल को कोई क्योंकि क्षेत्र खुद गई गए गया गाँव के गाँव में गाँवों में जब जमीन जा जाता है जाति के जातियाँ जातियों के जाती जाते हैं जाने ज्यादा ज्यादातर तक तरह तो था थी थे दिया दो धान नहीं नहीं है ने पंचायत पंजाब पर परिवार परिवारों पहले फिर बहुत बाकी बात बाद बाहर ब्राह्मण भारत भी महत्त्वपूर्ण मुसलमान यह यहाँ या रहते रहा रहे हैं रूप से लेकिन लोग लोगों वह विवाह वे सकता है सकते सबसे सभी समूह सम्बन्ध सामाजिक सिख सिर्फ हर हिन्दू ही हुआ हुए है और है कि हैं और हैं लेकिन हो होता है होती होते हैं होने

About the author (2000)

एम.एन. श्रीनिवास इंस्टीट्यूट फॉर सोशल एंड इकॉनॉमिक चेंज बंगलोर की समाजशास्त्र इकाई के सीनियर फैलो और प्रमुख थे। वे ऑक्स फोर्ड विश्वविद्यालय में (1948-51) भारतीय समाजशास्त्र के व्याख्याता, एम.एस. विश्वविद्यालय, बड़ौदा में (1952-59) और दिल्ली विश्वविद्यालय में (1952-72) समाजशास्त्र के प्रोफेसर रहे। 1953-54 में वह मैनचेस्टर विश्वविद्यालय के साइमन सीनियर रिसर्च फैलो और 1956-57 में ब्रिटेन और अमेरिका में रॉक फैलर फैलो रहे। वे पहले भारतीय हैं जिन्हें रॉयल एन्थ्रॉपॉलॉजिकल इंस्टीट्यूट ऑफ ग्रेेट ब्रिटेन एंड आयरलैंड की मानद फैलोशिप मिली। इसके अलावा, 1963 में लेखक कुछ समय के लिए बर्कले, कैलिफोॢनया में टैगोर लैक्चरर और डिपार्टमेंट ऑफ सोशल एन्थ्रॉपॉलॉजी एंड सोशियोलॉजी के साइमन विजि़टिंग प्रोफेसर रहे। प्रकाशन : मैरिज एंड फैमिली लाइफ इन मैसूर, द रिमेम्बर्ड विलेज और रिलिजन एंड सोसायटी अमंग द कुग्र्स ऑफ साउथ इंडिया, इंडियाज विलेजेज़ और डायमेंशंस ऑफ सोशल चेंज इन इंडिया का सम्पादन। सम्मान : रॉयल एन्थ्रॉपॉलॉजिकल इंस्टीट्यूट ऑफ ग्रेट ब्रिटेन एंड आयरलैंड का रिवर्स मेमोरियल मेडल (1955), भारतीय नृतत्त्वशास्त्र में योगदान के लिए शरतचन्द्र रॉय मेमोरियल गोल्ड मेडल (1958) और जी.एस. धुर्वे अवार्ड (1978)। शिकागो, नाइस और मैसूर विश्वविद्यालयों की मानद उपाधियाँ प्राप्त हुई हैं। देहावसान : 30 नवम्बर, 1999।

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