Kalam Ko Teer Hone Do

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Ramaṇikā Guptā
Vani Prakashan, 2015 - Hindi poetry - 303 pages
5000 हज़ार वर्षों से बची आ रही आदिवासी वाचिक परंपरा ने अब मुशतैदी से कलम भी संभाल ली है। ये कलम अब 'तीर' बनने की प्रक्रिया में है। 'तीर', जो भेद रहा है इस अन्यायी,अ-समान व्यवस्था को। 'कलम का यह तीर; केवल हृदय ही नही भेद रहा बल्कि वह देश के नीति-निर्धारकों के रुख को भी पलटने की तैयारी में है। यह कलम नीति नियंताओं को सावधान कर रही है कि बस! अब और नहीं।
 

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अपना अपनी अपने अब आज आदमी आदिवासी इतिहास इन इस इसलिए उनकी उनके उन्हें उस उसकी उसके उसे एक और कब तक कभी कर करती करते करने कलम कविता कहते हैं कहा कहाँ का कि किया किसी की तरह कुछ के नाम के लिए के साथ को कोई क्या क्यों गयी गये गाँव गीत घर जंगल जब जा जाता जाती है जाते जानते जाने जी जीवन जो झारखंड तब तीर तुम तुमने तुम्हारे तुम्हें तो था थी थे दिन दिया दिल्ली दी देश दो धरती धान नदी नहीं नहीं है ने पत्थर पर पहले पानी पास पेड़ फिर बच्चे बन बना बनाए बरगद बहुत बात बाद भी मन मुझे में मेरा मेरी मेरे मैं यह यहाँ या रहा है रही रहे हैं रात ले लेकिन लोग वह वे शहर सब साखू से स्त्री हम हमारी हमारे हमें हर ही हुई हुए हूँ है है और होगा होता होने

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