KāmāyanīBhāratī Bhandāra, 1964 - 302 pages |
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अधीर अपना अपनी अपने अब अरे आज आह इड़ा इस उठा उधर उस उसी ऋग्वेद एक और कभी कर करता करती करते करने कर्म कह कहाँ कहीं का कि कितना कितनी किन्तु की कुछ के केवल को कोई कोमल कौन क्या क्यों क्षण गया चल चला चले चिर चेतना छाया जब जल जाती जिसमें जीवन का जैसे जो ज्यों ज्वाला तक तब तुम तू तो था थी थे दुख दूर दे देख देखा देव दो धीरे नव नहीं निज नील ने पथ पर पवन प्रकृति प्राणी फिर बन बना बने बस भर भरा भरी भाव भी भूल मधु मधुर मन मनु माया मुख में मेरा मेरी मेरे मैं यह यहाँ यही या ये रह रहा रही रहे लगा लिये ले वह वही विकल विश्व वे शीतल श्रद्धा संसृति सब सा सी सुख सुन्दर सृष्टि से स्वयं हम हाँ ही हुआ हुई हुए हूँ हृदय है हैं हो होता होती