Pracheen Bharat Ke Kalatmak Vinod

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Rajkamal Prakashan, Sep 1, 2002 - 171 pages
‘‘भारतवर्ष में एक समय ऐसा बीता है जब इस देश के निवासियों के प्रत्येक कण में जीवन था, पौरुष था, कौलीन्य गर्व था और सुन्दर के रक्षण-पोषण और सम्मान का सामर्थ्य था। उस समय के काव्य-नाटक, आख्यान, आख्यायिका, चित्र, मूर्ति, प्रासाद आदि को देखने से आज का अभागा भारतीय केवल विस्मय-विमुग्ध होकर देखता रह जाता है। उस युग की प्रत्येक वस्तु में छन्द है, राग है और रस है।’’ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की प्रस्तुत कृति उसी छन्द, उसी राग, उसी रस को उद्घाटित करने का एक प्रयास है। इसमें उन्होंने गुप्तकाल के कुछ सौ वर्ष पूर्व से लेकर कुछ सौ वर्ष बाद तक के साहित्य का अवगाहन करते हुए उस काल के भारतवासियों के उन कलात्मक विनोदों का वर्णन किया है जिन्हें जीने की कला कहा जा सकता है। काव्य, नाटक, संगीत, चित्रकला, मूर्तिकला से लेकर शृंगार-प्रसाधन, द्यूत-क्रीड़ा, मल्लविद्या आदि नाना कलाओं का वर्णन इस पुस्तक में हुआ है जिससे उस काल के लोगों की जिन्दादिली और सुरुचि-सम्पन्नता का परिचय मिलता है।
 

Contents

Section 1
5
Section 2
9
Section 3
13
Section 4
18
Section 5
21
Section 6
22
Section 7
25
Section 8
26
Section 22
95
Section 23
98
Section 24
99
Section 25
108
Section 26
111
Section 27
115
Section 28
117
Section 29
119

Section 9
33
Section 10
34
Section 11
36
Section 12
38
Section 13
43
Section 14
50
Section 15
58
Section 16
66
Section 17
70
Section 18
71
Section 19
77
Section 20
79
Section 21
81
Section 30
120
Section 31
121
Section 32
125
Section 33
128
Section 34
129
Section 35
132
Section 36
134
Section 37
140
Section 38
142
Section 39
143
Section 40
145
Section 41
152
Section 42
162

Common terms and phrases

अधिक अन्तःपुर अपने अभिनय अर्थ अर्थात् अलंकार आदि इन इस इस प्रकार इसी उत्सव उन दिनों उनके उल्लेख उस उसके उसे ऊपर ऐसा ऐसे और कर करके करता था करती थी करते थे करना करने कला कलाओं कवि कहते हैं कहा का काल कालिदास काव्य किया है किसी की की चर्चा कुछ के बाद के लिए के साथ केवल को कोई कौटिल्य गया है गयी गये ग्रन्थों घर चाहिए चित्र जब जाता था जाता है जाती थी जाते थे जो तक तो था और था कि थी थीं दिया दी दो नहीं नाटक नाना नामक ने पर परन्तु प्रकार प्रकार के प्राचीन फिर बहुत बात भारत भाव भी में में भी यह या ये रहा रही राजा रूप से लोग वर्णन वह विनोद वे शकुन्तला संस्कृत सकता है समय साहित्य से ही हुआ हुई हुए है और है कि हैं हो होकर होता था होता है होते थे होने

About the author (2002)

बचपन का नाम: बैजनाथ द्विवेदी। जन्म: श्रावणशुक्ल एकादशी सम्वत् 1964 (1907 ई.)। जन्म-स्थान: आरत दुबे का छपरा, ओझवलिया, बलिया (उत्तर प्रदेश)। शिक्षा: संस्कृत महाविद्यालय, काशी में। 1929 में संस्कृत साहित्य में शास्त्री और 1930 में ज्योतिष विषय लेकर शास्त्राचार्य की उपाधि। 8 नवम्बर, 1930 को हिन्दी शिक्षक के रूप में शान्तिनिकेतन में कार्यारम्भ; वहीं 1930 से 1950 तक अध्यापन; सन् 1950 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी प्राध्यापक और हिन्दी विभागाध्यक्ष; सन् 1960-67 में पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में हिन्दी प्राध्यापक और विभागाध्यक्ष; 1967 के बाद पुनः काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में; कुछ दिनों तक रैक्टर पद पर भी। हिन्दी भवन, विश्वभारती के संचालक 1945-50; ‘विश्व-भारती’ विश्वविद्यालय की एक्ज़ीक्यूटिव काउन्सिल के सदस्य 1950-53; काशी नागरी प्रचारिणी सभा के अध्यक्ष 1952-53; साहित्य अकादेमी, दिल्ली की साधारण सभा और प्रबन्ध-समिति के सदस्य; राजभाषा आयोग के राष्ट्रपति-मनोनीत सदस्य 1955; जीवन के अन्तिम दिनों में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के उपाध्यक्ष रहे। नागरी प्रचारिणी सभा, काशी के हस्तलेखों की खोज (1952) तथा साहित्य अकादेमी से प्रकाशित नेशनल बिब्लियोग्राफी (1954) के निरीक्षक। सम्मान: लखनऊ विश्वविद्यालय से सम्मानार्थ डॉक्टर ऑफ लिट्रेचर उपाधि (1949), पद्मभूषण (1957), पश्चिम बंग साहित्य अकादेमी का टैगोर पुरस्कार तथा केन्द्रीय साहित्य अकादेमी पुरस्कार (1973)। देहावसान: 19 मई, 1979

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