Meera

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Rādhākr̥shṇa Prakāśana, 2004 - 178 pages
हमारे दौर के असाधारण फिल्मकार और शायर गुलज़ार की फिल्म ‘मीरा’ की यह स्क्रिप्ट मीरा की जीवन-कथा का बयान भर नहीं है। यह मीरा को देखने के लिए एक अलग नजरिये का आविष्कार भी करती है। जैसा कि स्वाभाविक ही था, माध्यम की जरूरतों के चलते, इस पाठ में मीरा हमें कहीं ज्यादा मानवीय और अपने आसपास की देहधारी इकाई के रूप में दिखाई देती हैं; लगभग दैवी व्यक्तित्व नहीं जैसा कि इतिहास के नायकों के साथ अकसर होता है, और मीरा के साथ भी हुआ। लेकिन मीरा के मानवीकरण में माध्यम की आवश्यकताओं के अलावा काफी भूमिका खुद गुलज़ार साहब की और एक रचनाकार के रूप में उनके रुझान की भी है। अपने गीतों में वे हवा, धूप और आहटों तक का मानवीकरण करते रहे हैं; फिर मीरा तो जीते-जागते इंसानों से भी कुछ ज्यादा जीवित मानवी थीं। मीरा और उनके युग का पुनराविष्कार करनेवाली फिल्म की स्क्रिप्ट के अलावा इस पुस्तक में गुलज़ार से उनके रचनाकर्म के बारे में यशवंत व्यास की एक लम्बी बातचीत भी है और साथ है ‘मीरा’ के निर्माण में आनेवाली मुश्किलों के बारे में गुलज़ार का एक संस्मरण, जो इस पुस्तक को और उपयोगी तथा संग्रहणीय बनाता है। सिनेमा के विद्यार्थियों और पटकथा लेखकों को भी यह पुस्तक बहुत कुछ सिखाती है।

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अकबर अगर अपनी अपने अब आई आप आपको आया इस उनके उन्हें उस उसकी उसके उसे ऊदा एक ओर और कर करता करते करना करने कहा का काम किया किसी की की तरह कुँवरबाई कुछ कृष्णा के लिए के साथ को कोई क्या क्यों खुद गई गए गया गुलज़ार घर जब जयमल जा जाता है जाने जैसे जो डायरेक्टर तक तुम तुलसीदास तो था दिन दिया दी देखा दो दोनों नहीं नहीं है पर पहले पूछा फिर फ़िल्म फ़िल्मों बहुत बात बाद बाहर बीरमदेव बेटी भी भोज भोजराज मन्दिर महन्त माँ मीरा ने मुझे में मेरे मैं मैंने यशवन्त यह या ये रहा था रही थी रहे थे रैदास ललिता लिया ले लेकिन लेखक लोग वह वहाँ वही विक्रमजित वो श्रीकृष्ण संजीव कुमार सब सामने सिर्फ़ सीन सुनकर से स्क्रिप्ट हम हर हाथ ही हुआ हुई हुए हूँ है और है कि हैं हो होगा होता है होती

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