Hamara Shahar Us Barasआसान दीखनेवाली मुश्किल कृति हमारा शहर उस बरस में साक्षात्कार होता है एक कठिन समय की बहुआयामी और उलझाव पैदा करनेवाली डरावनी सच्चाईयों से ! बात ‘उस बरस’ की है, जब ‘हमारा शहर’ आए दिन सांप्रदायिक दंगों से ग्रस्त हो जाता था ! आगजनी, मारकाट और तद्जनित दहशत रोजमर्रा का जीवन बनकर एक भयावह सहजता पाते जा रहे थे ! कृत्रिम जीवन शैली का यों सहज होना शहरवासियों की मानसिकता, व्यक्तित्व, बल्कि पूरे वजूद पर चोट कर रहा था ! बात दरअसल उस बरस भर की नहीं है ! उस बरस को हम आज में भी घसीट लाये हैं ! न ही बात है सिर्फ हमारे शहर की ! ‘और शहरों जैसा ही है हमारा शहर’ – सुलगता, खदकता-‘स्रोत और प्रतिबिम्ब दोनों ही’ मौजूदा स्थिति का ! एक आततायी आपातस्थिति, जिसका हल फ़ौरन ढूंढना है; पर स्थिति समझ में आए, तब न निकले हल ! पुरानी धारणाए फिट बैठती नहीं, नई सूझती नहीं, वक्त है नहीं कि जब सूझें, तब उन्हें लागू करके जूझें स्थिति से ! न जाने क्या से क्या हो जाए तब तक ! वे संगीने जो दूर है उधर, उन पर मुड़ी, वे हम pa भी न मुद जाएँ, वह धुल-धुआं जो उधर भरा है, इधर भी न मुद आए ! अभी भी जो समझ रहे हैं कि दंगे उधर हैं-दूर, उस पार, उन लोगों में-पाते हैं कि ‘उधर’ ‘इधर’ बढ़ आया है, ‘वे’ लोग ‘हम’ लोग भी हैं, और इधर-उधर वे-हम करके खुद को झूठी तसल्ली नहीं दी जा सकती ! दंगे जहाँ हो रहे हैं, वहां खून बह रहा है ! सो, यहाँ भी बह रहा है, हमारी खाल के नीचे ! अपनी ही खाल के नीचे छिड़े दंगे से दरपेश होने की कोशिश हेई इस गाथा का मूल ! खुद को चीरफाड़ के लिए वैज्ञानिक की मेज पर धर देने जैसा ! अपने को नंगा करने का प्रयास ही अपने शहर को समझने, उसके प्रवाहों को मोड़ देने की एकमात्र शुरुआत हो सकती है ! यही शुरुआत एक जबरदस्त प्रयोग द्वारा गीतांजलिश्री ने हमारा शहर उस बरस में की है ! जान न पाने की बढती बेबसी के बीच जानने की तरफ ले जाते हुए ! |