Rachna Ki Zameen

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Vani Prakashan, Jun 24, 2021 - Literary Criticism - 136 pages
हर समय की अपनी आवाज़ होती है। कुछ अपने बोल होते हैं, अपने-अपने शब्द, अपने मुहावरे होते हैं और होती है अपनी भाषा जिससे संवाद किये बगैर उस समय की धड़कन यानी बच्चे के लिए कोई किताब नहीं लिखी जा सकती। यही किसी भी नयी रचना या नयी पुस्तक की ज़मीन बन सकती है। * कविता अपनी बुनावट में खुलती जा रही थी। पूरी कक्षा इस अन्त से चकित थी। उनके सामने जैसे एक भयावह रहस्य खुल रहा था या कवि के शब्दों में भेद खुल रहा था, कि बुद्धि की कंगाली की अन्तिम परिणति क्या है? * मेरे सामने उद्धव की गोपियों की तरह कई किताबें खुल पड़ी हैं। कह रही हैं-'हमका लिख्यो है कहा, हमका लिख्यो है कहा' । देखिए तो, जिन किताबों में मैंने काम किया वे सब की सब अपनी-अपनी कहानी सुनाने को उतावली हो गयीं। * मुझे लगा मैं किताब नहीं ख़ुद को पढ़ रही हूँ। किताब के पन्नों को उलटते-पलटते कई बार कई तरीक़े से पढ़ा। कभी बीच से, कभी अन्त से, तो कभी शुरू से, हर बार एक नये अर्थ के साथ। इस किताब के पन्नों के भीतर से कई बार मैंने कई सदी की स्त्रियों, तो कभी मेरे घर की रसोई में खड़ी स्त्री की धड़कन महसूस की। (इसी किताब से...)
 

Contents

Section 1
7
Section 2
9
Section 3
13
Section 4
16
Section 5
19
Section 6
24
Section 7
26
Section 8
28
Section 19
56
Section 20
63
Section 21
68
Section 22
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Section 23
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Section 24
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Section 25
91
Section 26
94

Section 9
30
Section 10
32
Section 11
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Section 12
36
Section 13
39
Section 14
44
Section 15
46
Section 16
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Section 17
51
Section 18
53
Section 27
97
Section 28
103
Section 29
108
Section 30
112
Section 31
116
Section 32
118
Section 33
121
Section 34
127
Section 35
133
Copyright

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Common terms and phrases

अगर अपनी अपने अब आज आप इन इस इसलिए उनकी उनके उन्हें उपन्यास उस उसकी उसके उसे ऐसा ऐसे ओर और कई कबीर कभी कर करता करती करते करने कवि कविता कहा कहीं का कारण किताब किया किसी की तरह की बात कुछ के लिए के साथ को कोई क्या क्योंकि गयी घर जब ज़रूरत जा जाता है जाने जी जीवन जैसे जो तक तो था थी थे दुनिया देने देश नयी नहीं नहीं है निराला ने पढ़ने पर पहले पूरी पृ फिर बच्चे बच्चों के बन बहुत बार भारत भाषा भी भी नहीं मन महादेवी मुझे में मेरे मैं यह यहाँ या याद ये रहा है रही रहे लेकिन वह वाले वे शब्द शब्दों शिक्षा सकता है सब सबसे समय समाज सवाल सामने साहित्य से स्कूल स्त्री हम हमारे हमें हर हिन्दी ही हुआ हुई हुए हूँ है और है कि हैं हो होगा होता है होती होने

About the author (2021)

संध्या सिंह ने दिल्ली विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में एम.ए., एम. फिल. किया और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पीएच.डी.। आजकल एनसीईआरटी में प्रोफेसर हैं। इसके पहले बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से सम्बद्ध बसन्त महिला महाविद्यालय, राजघाट में अध्यापन। बच्चे, शिक्षा, भाषा और साहित्य की अध्येता के रूप में निरन्तर विश्लेषणात्मक और शोधपरक लेखन। 'निराला का गीतकाव्य' और 'निराला के काव्य का राजनीतिक सन्दर्भ' नाम से दो आलोचनात्मक किताबें प्रकाशित। एनसीईआरटी में रहते हुए भाषा की पढ़ाई, मीडिया, सृजनात्मक लेखन, अनुवाद सम्बन्धी लगभग बीस किताबों का लेखन और सम्पादन। मातृभाषा शिक्षा पर 'समझ का माध्यम' तथा परमवीर चक्र विजेताओं पर आधारित 'वीरगाथा : स्टोरीज़ ऑफ़ परमवीर चक्र एवार्डी' (सहलेखन) किताबें एनसीईआरटी से प्रकाशित। सम्पर्क : 5/7, एनसीईआरटी कैम्पस, श्री अरविन्द मार्ग, नयी दिल्ली-110016 मो. : 09891926197 ई-मेल:sandhya.ncert@gmail.com

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